Saturday, December 8, 2007

दुबेजी का पत्र

मुहल्ले में बहुत दिनों से एक दुबेजी पर चर्चा हो रही थी.वो दुबे जी लैट्रीन साफ़ करते हैं.मुझे भी मिल गये.उन्होनें मुझे मुहल्ले वालों के नाम एक पत्र दिया. कहा कि इसे सही जगह पहुंचा दें.मैने उस पत्र को मुहल्ले के लोगों तक पहुंचा दिया है.लेकिन आप भी उसे देख सके इसलिए दुबे जी की अनुमति से यहां भी छाप रहा हूं.

सब लोगन को प्रणाम. मैं दुबेजी बोल रहा हूं. वही दुबेजी जिसे दिलीप भाई ने लैट्रीन साफ करते देख लिया था.मैं पहले अपना पुरा परिचय देना चाहता हूं.इसके बाद और बात होगी.मेरा नाम रामानंद दुबे है. मेरा घर हुआ गोरखपुर में चिल्लूपार.अब गांव मत पुछियेगा. हाथ जोडते हैं.

आपलोगों को मैं यह पत्र नहीं लिखता लेकिन आपलोग हमारे उपर इतना चर्चा कर लिये कि रहा नहीं गया.अविनाश भाई तो असली नारद हैं.उकसा देते हैं फिर खेल देखते रहते हैं.हां तो... मैं किसी पर कोई आक्षेप नहीं लगा रहा.मैं क्या लगाउंगा आक्षेप? मैं कुछ कहना चाह रहा था इसलिये सामने हूं.

मेरे गांव में २५ घर है दुबे लोगो का.दुबे टोली कहते हैं आज भी...ठीक वैसे ही जैसे ७० घर दलितों वाले मुहल्ले को चमटोल.गांव के दखीन में है यह मुहल्ला.ग्वाल लोग भी हैं १० घर.ग्वालों का टोला कहते हैं जहां वो रहते हैं.उनके घर के पास लंबा चौडा मैदान है.और बाकी २० घर में सब जाति है.हमारे गांव के पुरब के पोखरे पर काली मां का मंदिर है.उसमें जेठ महिने में काली मां की पूजा होती है.पहले जब देवी आती थीं तो दुबे बाबा (पूरा गांव इसी नाम से जानता था)के शरीर पर आती थी.हम लोग छोटे थे तब.लेकिन जब थोडा बडा हुआ तो देखा कि अब काली माता गांव के बासुकी भैया(वो चमटोल में ही रहते थे)पर आती थी. हमलोग जाते थे उनके पैर पकडते थे. यह डर भी साथ कि कहीं काली मां नाराज़ ना हो जाये. वो नीम के छरका से हमें मार कर आशिर्वाद देते थे. जब पहली बार मैंने उन्हें उस रूप में देखा था तो दंग रह गया. दिमाग में काली मां की तस्वीर बस गयी. इसके बाद वो किसी काम से हमारे घर के पास आये थे. हमने दौड के उनका पैर छुआ था. वहीं खडे थे हमारे बडका बाबुजी. कस के डपटे थे बासुकी भैया को. "का रे बसुकिया बाभन के बच्चे से पैर छुआता है रे?".."मालीक"...कुछ नहीं बोल सके थे वो और चले गये थे.हमे समझ में आ गया कि चमटोल में रहने वालों के पैर नहीं छुआ जाता. इसके बाद तो जब कहा गया तो मैने पैर छुआ ...नहीं तो बस ऐसे ही निकल गये...धीरे धीरे हुआ यह कि आठवी तक जाते जाते हमहीं को गांव के कई लोग पांव लागो पंडीजी कहने लगे. उसमे बासुकी भैया भी थे. अब मैं उनको भैया नहीं कहता था.

आठवीं के बाद नहीं पढ पया. घर में पैसे नहीं थे. मेरा एक बचपन का दोस्त था घुरहुआ.उ सका असली नाम था घुरे राम. पता नहीं कब बंबई चला गया था. वहां से आता तो लक दक लक दक कपडा,जूते और लाल मोजे,बढिया चेक वाली लुंगी पहन कर घुमा करता. हमारे पास था वही एक पुराना बंडी और जज्मान के यहां से मिली हुई धोती. .घुरहुआ हमको बांबे की कहानी सुनाता तो हम बस सुनते रह जाते. इसी बीच शादी हो गयी. शादी हो गयी तो बच्चे भी हुए. तीन लडकियां और दो लडके. बडी लडकी जब १२ साल की हुई तो चिंता सताने लगी. आमदनी अठ्ठनी और खर्चा रुपैया की जगह आमदनी चवन्नी और खर्चा दो रुपैया हो गया था. कभी कभार जज्मान के घर शादी व्याह होता था तो कुछ पैसा हाथ में आता था. लेकिन जज्मानी भी तीन भाईयों में बंट गयी थी. मुश्किल से खर्चा चलता था. उम्र के ३१ वें पडाव पर आकर बडा कोफ़्त होता था. जमीन थी नहीं कि खेती - वेती करते. लगातार परेशान रहते थे कि कैसे क्या करें? इसी सोच में दिन कटता था. सारे बाल सफ़ेद हो गये और शरीर गल कर आधा.( दिलीप भाई ने शायद गौर नहीं फ़रमाया.शायद वो यह सुनकर और देखकर ही हैरान परेशान रह गये कि दुबेजी लैट्रीन साफ कर रहे हैं.अरे भैया सब करना पडता है.)

तीन साल पहले होली में घुरहुआ फिर गांव आया. साथ में भंग छनी. होरी गाया गया. घुरहुआ नगाडा के थाप पर बडा कर्कश नाचता है. हम नाचे... गाये....पर्व मनाकर खाली हुए तो बात शुरु हुआ.हमारा हाल देखकर बोला,"भैया हियां का रखा है मेरे साथ बांबे चलो वहीं काम करेंगे. ठीक ठाक पैसा मिल जाता है".घर में बाल बच्चों को छोडकर बांबे कैसे जायें? बडा मुश्किल सवाल था. घरवाली से बात किये तो कहा कि जवान लडकी सर पर खडी है और आप कहते हैं बांबे कैसे जायें! मैं घर संभाल लूंगी आप जाइये. मैं कुछ पैसे लेकर बांबे चला. वहां गया तो उसी के घर पर रुका. घर क्या था ...एक कमरा था ..उसको सब खोली कह रहे थे. एक कमरे में चार लोग रहते थे. पांचवा था. अगली सुबह मैं घुरहु के साथ उसके काम वाली जगह पर गया. वो वहां का सुपरवाईजर था. दस लोग उसके अंडर में काम करते थे. ठेका जैसे काम होता था. पुरे आफ़िस की साफ सफ़ाई का ठेका किसी कंपनी को मिला था. उसी कंपनी में घुरहुआ काम करता था. हमें बताया गया कि यही काम होता है. क्या ना करता? छाती पर पत्थर रखकर मंजूर किया काम करना. आपको क्या लगता है हमको गुस्सा नहीं आया अपने आप पर...मन तो करता कि कहीं डूब मरें लेकिन बडकी का फोटो आंख के सामने नाच जाता था. कैसे करेंगे उसका ब्याह?
हमने घुरहुआ से वादा लिया कि वो किसी से नहीं बतायेगा कि मैं क्या काम करता हूं. तो भला कौन मेरी बडकी से ब्याह करता. कौन देता अपनी लडकी मेरे घर में. गांव वाले थुकते वो अलग. गांव में घुरहुआ और मेरी घरवाली को छोडकर किसी को नहीं पता मैं क्या करता हूं.

पिछली गरमी में घर गया था तो मेरे एक जजमान के यहां शादी थी. मैं गया अपने नये कपडे पहन कर. जजमानी ज्यादा मिली. सब बोला कि पंडीजी खाली इसी खातीर बांबे से हियां आये हैं. भेखे भिख मिलता है मेरी माई कहती थी. एक लडका भी देख आया बडकी के लिये. उसके लिये पायल बनवाया है...उसको पहन कर चलती है तो रुन झुन रुन झुन पूरा गर गुंजता रहता है.बडा सकून मिलता है करेजे को.उससे ज्यादा सकून कभी नहीं मिला.
आज सबसे बडा सवाल मेरे सामने यही है कि मेरे बच्चे ठीक से रहें...अपना काम पूरा करूं .बच्चों की शादी वादी कर दूं. कुछ पैसे बचे तो फिर गांव जाकर अपना काम धाम करूं. दिलीप भाई पता नहीं आपने मुझे कहां देखा. बांबे में या दिल्ली में. मैं ऐसे अपने ही जैसे कई और लोगो को जानता हूं जो अलग अलग तरह का पेशा कर रहे हैं.कोई दुबे है, कोई तिवारी है, कोई चौबे, पांडे, शुक्ला और ओझा भी. ये सब लगे हैं साफ़ सफ़ाई में दर्जी के काम में यहां तक की हलवाई और मोची भी बने हैं. लेकिन एक बात मैं और कहना चाह रहा हूं ...दिलीप भाई महिलायें तो तैयार ही नहीं बल्कि वो अपना काम भी कर रही हैं ...आप जरा पुरुषों को आगाह किजिये ...वो समझने के लिये तैयार ही नहीं दिखते.

आप सबका
रामानंद दुबे

2 comments:

संदीप द्विवेदी said...

mann bahut dukhi ho jata hai jab dekhta hu ki log aaj bhi kisi se dosti ya dushmani uski jati dekh kar karte hai.....jaise aap jante hi honge ki bhumihar se dosti karne walon ko savdhan rahne ko aagaah kiya jata hai....main aaj tak nahi samjha ki yasa kyo kaha jata hai aur kisi se pucha bhi to unke pass koi jawab nahi tha....dil se kahta ho maine aaj tak kisi ki jati dekh kar dosti nahi ki....shayad yahi karan hai ki sabhi jaati ke log mere dost hain...

balman said...

बड़ी बात उठाई है आपने।जाति का दंभ पेट नहीं भर सकता,इसके लिये तो काम करना पड़ेगा ही।सुन्दर लेखन।