Saturday, December 1, 2007

लापोड़िया की राह



राजस्थान में एक गीत बहुत ही मशहूर है। इस गीत का मतलब है... धरती पानी के लिए प्यासी है और उसने अपने पतिदेव इंद्र को बुलावा भेजा है। इंद्रदेव आते हैं और अपनी प्रेयसी का प्यास बुझाते हैं। लेकिन कभी कभी इंद्रदेव रूठ जाते हैं। धरती की प्यास नहीं बुझ पाती है। फिर धरती अपने पुत्रों को पुकारती है.

नक्की धरती करे रे पुकार
पेड लगा कर करो श्रंगार...
नक्की धरती करे रे पुकार
चौका बना कर करो रे श्रंगार...

धरती की पुकार को किसी ने सुना या ना सुना हो..... जयपुर ज़िले में दूदू ब्लाक के लापोड़िया गांव के लोगों ने ज़रूर सुना है। बात 70 के दशक के अंतिम दिनों की है जब यह पूरा इलाका लगातार तीन साल से अकाल की चपेट में था। लोग अपने जानवरों के साथ अपने- अपने गांव छोड़कर जा रहे थे। इस तरह गांव के गांव खाली होते जा रहे थे। लेकिन १८९ परिवार वाले लापोड़िया गांव के लोगों के दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था। गांव के कुछ नौजवान इक्कठा हुए और लोगों को भी इक्कठा किया। जी जान से मेहनत की और अपने गांव ही नहीं आस पास के गांव की भी तस्वीर बदल डाली। लापोडिया के रामकरन सिंह उन दिनों की याद करते हुए कहते हैं,"चारों तरफ सुखा पडा था.हम भी बहुत परेशान थे.सरकार ने काम के बदले अनाज कार्यक्रम चला रखा था.उसी समय हमने सोचा कि हम गांव छोडकर नहीं जायेंगे और हमने अपने गांव को हरियाली से पाट देने का संकल्प लिया."

कहते हैं कि जो अपनी मदद खुद करता है उसकी मदद खुदा करता है. लापोडिया के लोगों के साथ उनका अपना खुदा था.लोगों ने जल संचयन के पुराने तरिकों को ही अपनाया। बड़े बड़े चारागाहों में चौका बनाकर बारिश के पानी का रूख तालाबों की ओर किया। गांवों की गलियों और घरों तक में बारिश की पानी की एक एक बूंद को संचित करने का जुगाड़ लगाया। तालाबों की मरम्मत की। मेड़ों पर पेड़ लगा दिया। धीरे धीरे जमीन के नीचे पानी का स्तर बढ़ा। रामकरन सिंह कहते हैं," हमने चौका बनाने का निर्णय लिया.इससे कई फ़ायदा हुआ.ज़मीन के निचे पानी का स्तर बढा. साथ में पुरे चारागाह के इलाके में हरियाली ही हरियाली नज़र आने लगी.जो घास बारिश के मौसम के बाद सुख जाती थी वो घास अब गर्मियों में भी कम ही सुखती है.इससे पशुओं को भरपूर चारा मिलता है और हमें दूध ज्यादा मिलता है."

पिछले दो सालों की तरह ही इस बार भी लापोड़िया के आस पास बहुत कम बारिश हुई है। पर लापोड़िया के गाँव मे आज भी चारो तरफ हरियाली है और कुंओं में भरपूर पानी है। लापोड़िया के लोगों ने प्रकृति से प्यार किया और इन्हें उसका उपहार भी मिला। गांव की इस हरित क्रांति के सुत्रधारों में से एक लक्ष्मण सिंह कहते हैं,"हम कार्तिक की एकादशी को तालाबों,बावडियों और पेडों की पूजा करते हैं.इस दिन जल यात्रा निकाली जाती है.उसमें कई गांव के लोग हिस्सा लेते हैं.इस दिन हम सब यह संकल्प लेते हैं कि हम पेड लगायेंगे और किसी भी पेड को नहीं काटेंगे.तालाबों की मरम्मत करेंगे.और साल भर उस दिन लिये संकल्प के अनुसार काम करते हैं"

आज इस गाँव मे हरियाली की कोई कमी नही । खेती भी अच्छी होती है। यहाँ के लोग हर तरह की फसले उगाते है.चाहे वो कोई अनाज हो या मौसमी सब्जियां। लोपाड़िया गाँव की मिट्टी पोषक तत्वों से भरी है। इसके पीछे है इन गाँव वालो की दूरदर्शिता.ये लोग किसी भी तरह की रासायनिक खाद का प्रयोग नही करते। अपने खेतो मे ये जैविक खाद का ही प्रयोग करते है । समूह बनाकर खेती करना इनकी सफलता का एक बड़ा कारण है। लक्ष्मण सिंह कहते हैं," हमलोग यहां मिलजुल कर खेती करते हैं.साथ में किसी तरह की खाद का प्रयोग नहीं करते.शुरु में तो हमें कम फ़सल मिली लेकिन बाद में इन्हीं खेतों ने हमें भरपूर अनाज़ दिया."

लापोड़िया गांव के लोग अपनी जागरुकता के चलते आस-पास के गांव ही नहीं कई ज़िलों के लिए भी किसी आदर्श से कम नही। जब बाकी गांवो के लोग सूखे से परेशान रहते है। तब इस गाँव के नज़दीक क्षेत्रों के किसान अपनी उत्पादन क्षमता को और आगे बढाने की कोशिश मे लगे रहते है। जैविक खाद के प्रयोग के साथ ही ये पक्षियों के बीट से बनने वाली खाद का भी प्रयोग करते है । इनका मानना है कि पशु-पक्षी और पेड़ो की मदद से कई दिक्कतो से निजात पाया जा सकता है। इस इलाके के लोगों ने पक्षियों के रहने के लिए एक खुला चीड़ियाघर भी बनाया है और पक्षियों ने भी इसके बदले में करीब हजार बीघे में जैसे पेड़ लगाने का ठेका ले रखा है। लक्ष्मण सिंह हमें उन पेडों को दिखाते हुए कहते हैं. "ये सारे पेड हम नहीं लगा सकते थे.सो हमने पक्षियों को बुलाने के लिये पहले चुगादाना डालना शुरु किया.साथ में इस ४० बिघे की ज़मीन में पेड लगाना शुरु किया.उन पौधों में हमें बहुत मेहनत करनी पडी.पक्षी आए और उन्होनें बीज़ को खाया.उनके बीट से जो पेड लगे हैं उसमें हमें एकदम मेहनत नहीं करनी पडी."

लापोड़िया के लोग खेती के साथ-साथ अन्य व्यवसाय भी करते है । पौधे, पशु और पक्षी मतलब प्रकृति के सभी अंगों में सामंजस्य बैठाकर जीना सिखा है लापोड़िया ने। गांव में सहकारी समीति है। जो दूध के व्यवसाय को संचालित करती है।लापोड़िया के हर घर से दूध यहां पहुंचता है। इसके बाद इस दूध को जयपुर भेजा जाता है। अब जब नकद पैसे हाथ में हैं तो लोग अपने बच्चों को शिक्षा-दिक्षा देने का भी प्रयास कर रहे है। हालांकि वाल विवाह अभी भी ज़ारी है लेकिन अब लोगों में जागरुकता आयी है तो वाल विवाह में भी कमी आयी है. ३२ साल की साजो के चार बच्चे हैं.साजो जब १० साल की थी तो ब्याह कर इस गांव में आयी थी. १३ साल की उम्र में पहला बेटा हुआ था.आज एक बेटा और तीन बेटियां.हालांकि साजो
ने अपने बेटे की शादी भी १२ साल की उम्र में कर दी लेकिन वह अपनी बेटियों की शादी १८ साल के बाद ही करेगी.उसकी बडी बेटी रानी आज १३ साल की है.रानी ८ वीं क्लास में पढती है.स्कूल जाती है.साजो कहती है, "पहले नहीं मालूम था इसलिये बेटे का ब्याह जल्दी किया.अब तो पहले सभी लडकियों को पढाना है फिर १८ की उम्र के बाद ही शादी करनी है."

लापोड़िया गाँव के लोगों ने आज तक जो भी किया है गांववालों के सामूहिक प्रयास से किया है। अपने श्रमदान से किया है। लक्ष्मण सिंह कहते हैं,"जैसे शादियों में आमंत्रण पत्र भेजा जाता है वैसे ही जब कोई काम होता है हम चंदा की रसीद दूसरे गांवों में भेजते हैं.आस पास के हर गांव में ग्राम विकास समीति बनी हुई है.उस समीति के लोग यह तय करते हैं कि उस गांव से चंदा के साथ साथ अच्छी मात्रा में लोग श्रमदान के लिये जुटें.जब दूसरे गांव में कोई काम होता है तो हमारे गांव से भी चंदे के अलावा लोग श्रमदान के लिये जाते हैं.

आज लापोड़िया ने स्वावलंबन की एक नई परिभाषा गढ़ी है। पानी की किल्लत से जुझते हुए लोगों को तालाबों, पोखरों ,पौधों और पक्षियों से प्यार करना सिखाया है। सामूहिक प्रयास और नेतृत्व का एक नया कीर्तिमान स्थापित कर साबित किया है कि कुछ भी असंभव नहीं है। कुछ भी नहीं...रेत से पानी निकालना भी नहीं।

क्या है चौका?
"ज़मीन के बडे भाग की पहले नापी की जाती है.फिर उस ज़मीन का खाका कागज पर खिंचा जाता है.ज़मीन की ढलान को देखते हुए उसे छोटे छोटे भागों में बांटा जाता है.हर पंक्ति में एक छोटी नाली बनाई जाती है.कई सारी नालियों का रूख एक बडी नाली की ओर होता है.सभी बडी नालियों का रूख तालाब की ओर होता है.चौका के मेड की औसत उंचाई १ फ़ीट तक होती है.जब वारिश होती है तब वारिश का पानी यूंही बह जाने की बजाय नालियों से होता हुआ तालाब तक पहुंचता है. उस पानी का उपयोग सिंचाई के लिये,पशुओं के लिये और पीने के लिये किया जाता है.इस पूरी प्रक्रिया में एक बडा फ़ायदा यह होता है कि यह पानी ज़मीन के अंदर पहुंचता है और ज़मीन के नीचे पानी के स्तर को बढाता है."

क्या है जल यात्रा?
"कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को राजस्थान में तालाबों,झीलों और बावडियों की पूजा करने की परम्परा रही है.लापोडिया के लोगों ने इस उत्सव के माध्यम से लोगों को तालाबों ,पेड पौधों,पशुओं और प्रकृति से प्रेम करना सिखाया है.इस दिन यहां के लोग जल यात्रा निकालते हैं.जल यात्रा में १०-३० गांव के लोग हिस्सा लेते हैं.यह यात्रा लापोडिया से शुरु होती है.जत्थे में २० से ५०० तक लोग शामिल हो सकते हैं.यह उस गांव की आबादी पर निर्भर करता है.यह जुलुश की शक्ल में जब दूसरे गांव पहुंचता है तो दूसरे गांव के लोग अपने गांव से बाहर उस जत्थे का स्वागत करने के लिये खडे होते हैं.जत्थे के लोगों को पानी पिलाया जाता है.फिर शुरु होती है चर्चा.गांव की समस्या पर,गांव के हालात पर और उसके समाधान को लेकर.कुछ निर्णय लिए जाते हैं.फिर पहले वाले गांव के लोग वापस लौट आते हैं और दूसरे गांव के लोग अगले गांव की तरफ़ चल पडते हैं.यह सिलसिला तब तक चलता रह्ता है जब तक यह यात्रा सभी गांव (जितने गांव तक इस यात्रा को पहुंचना तय था.)तक नहीं पहुंचती.एक संदेश देती हुई.एक नई शुरुआत के लिये लोगों को प्रेरित करती हुई.समूह में लोगों को काम करने के तौर तरिके सिखाती हुई."

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