Thursday, November 29, 2007

स्वांतः सुखाय...

बहुत दिन पहले की बात है जब हमने भी अपना एक ब्लाग बनाया.सोचा जब भी मैं कहीं कुछ नहीं कह पाउँगा,ब्लाग पर कहूंगा. कहने को बहुत कुछ था मेरे पास लेकिन, मैं ये सोचता था कि पढेगा कौन? साथ में कस्बे वाले रविश कुमार की तरह मुझे भी लिखने से ज्यादा मह्त्वपूर्ण बोलना ही लगता रहा है.हो सकता है इसका एक कारण यह रहा हो कि मैं यह सोचता रहा हूं कि मुझमें लिखने की कला का भरपूर विकास नहीं हो पाया है. लेकिन, जो थोडा बहुत लिख पाता हूं तो क्या मैं उसका उपयोग तुलसी दास की तरह ही स्वांतः सुखाय के लिए लिखते रहने के लिये करुं? उधर मेरी इसी बेरुखी से आज़िज आ चुके दोस्तों का आग्रह भी जारी था.कईयों ने तो झल्ला कर कहा, " लिखो यार...क्या आलसी के पोंछ बने हुए हो."

इधर बीच एक और घटना घटी. मोहल्ला,कस्बों और अड्डओं पर घूमते हुए विवेक भाई से टक्कर हुई.लिखने का आग्रह करने लगे. मैनें उन्हे समझाने का प्रयास करते हुए कहा," लिखना मेरे वश का नहीं. और मैं तो देख रहा हूं कि इधर सभी लोग अपना अपना ब्लॉग बना कर बैठे हैं और धडाधड लिखे जा रहे हैं.तो जब सब लोग लिखेंगे ही तो पढेगा कौन? आप हमें पढने वाले की श्रेणी में ही रहने दें". लेकिन, वो नहीं माने. कहने लगे, " पढने वालों की नहीं लिखने वालों की कमी है.सभी लोग सिर्फ़ पढना ही चाहते हैं कोई लिखना नहीं चाहता." मैनें उनसे अपना पिंड छुडाने के लिये कहा ," मुझे तो लिखना आता नहीं. मैं लगातार घुमता रहा हूं और पढता रहा हूं लेकिन मैं तो वैसे सोच भी नहीं पाता जिस तरह से लोग लिखते हैं. शब्दों से खेलना मुझे नहीं आता.मैं कैसे लिखूं? ऐसे ऐसे शब्दों से पाला पडा है जिसे मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ पढते आया हूं.कभी किसी को बोलते नहीं सुना.ज़ाहिर सी बात है वैसे शब्द मैं भी नहीं बोलता .और ना ही सोच पाता हूं. फिर मैं सिर्फ़ लिखने के लिये लिखूं?ये बात भी मेरी समझ से परे है." तभी उन्होनें अपने तरकश का अंतिम तीर छोडा..."ऐसी भाषा तो हमारे गांव में रहने वाले लोग भी नहीं बोलते और ना ही समझते हैं...फिर क्या उनकी कहानियां नहीं कही या लिखी जायेंगी?

फिर क्या था...घूम घूम के थोड़ी थकान भी हो रही थी. सो आ बैठा हूं अपने ढाबे में.कुछ कहने को कुछ सुनने को. इस बीच जहां भी मैं घूमता रहा हूं और मैने जो अनुभव किया है उस बारे में भी बातें होंगी.लेकिन थोड़ा आराम कर लूं. अभी अभी लौटा हूं.

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