Sunday, March 25, 2007

दोपहर के अलसाये पल

तुम्हारी समँदर -सी गहरी आँखों में,
फेंकता पतवार मैं, उनींदी दोपहरी में -
उन जलते क्षणों में, मेरा ऐकाकीपन
और घना होकर, जल उठता है - डूबते माँझी की तरह -
लाल दहकती निशानीयाँ, तुम्हारी खोई आँखों में,
जैसे "दीप ~ स्तंभ" के समीप, मँडराता जल !

मेरे दूर के सजन, तुम ने अँधेरा ही रखा
तुम्हारे हावभावों में उभरा यातनाओं का किनारा ---
अलसाई दोपहरी में, मैं, फिर उदास जाल फेंकता हूँ --
उस दरिया में , जो तुम्हारे नैया से नयनों में कैद है !
रात के पँछी, पहले उगे तारों को, चोंच मारते हैं -
और वे, मेरी आत्मा की ही तरह, और दहक उठते हैँ !
रात, अपनी परछाईँ की घोड़ी पर सवार दौड़ती है ,
अपनी नीली फुनगी के रेशम - सी लकीरों को छोडती हुई !
- पाबलो नेरुदा