tag:blogger.com,1999:blog-5686804785204763032024-03-14T08:27:31.489-07:00घुमक्कड़सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ!
ज़िंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ!!Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.comBlogger14125tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-19810143852360876352015-04-13T11:10:00.002-07:002015-04-13T11:10:56.163-07:00दोराहे पर खड़ा आरटीआई कानूनहाल ही में सूचना के अधिकार कानून से जुड़ी दो खबरों ने अपना ध्यान खिंचा। पहली खबर राजस्थान के ब्यावर से आई। ब्यावर में एमकेएसएस सूचना के अधिकार कानून को लेकर छेड़े गए आंदोलन के 20 साल पूरे होने के अवसर पर कई तरह के कार्यक्रम कर रहा है। आज से 20 साल पहले 5 अप्रैल 1996 को राजस्थान के ब्यावर में सूचना के अधिकार कानून की मांग को लेकर एक धरना शुरू हुआ। मजदूर किसान संघर्ष समीति के नेतृत्व में शुरू हुआ यह धरना चालीस दिनों तक चला था। दरअसल धरना शुरू होने के ठीक एक साल पहले 5 अप्रैल 1995 को राजस्थान के तत्कालिन मुख्यमंत्री भैरों सिंह शैखावत ने राज्य विधानसभा में यह घोषणा की थी कि राज्य में सूचना का अधिकार कानून लाया जाएगा। उस घोषणा के एक साल बीत जाने के बाद भी जब घोषणा पर कोई कारवाई नहीं हुई तो एमकेएसएस के नेतृत्व में उस घोषणा पर अमल कराने की मांग के साथ धरना शुरू हुआ। जब सरकार ने इस संबंध में निर्णय लेने के लिए एक समीति का गठन किया तब जाकर यह धरना खत्म हुआ। धरना के खत्म होने के बाद लगभग 10 साल तक चले आंदोलन के बाद ही 12 अक्टूबर 2005 को यह कानून केंद्र में लागू हो पाया था। तब से लेकर आज तक इस कानून ने लोकतंत्र की निंव में खाद पानी डालकर ना सिर्फ इसे सिंचा है बल्कि इसकी फसल को आखिरी पायदान पर खड़े लोगों तक पहुंचाया भी है।
अब इस कानून के लागू हुए भी 10 साल बीत गए। लेकिन आज आई एक दूसरी खबर ने भी अपनी ओर ध्यान खिंचा। दिल्ली हाइकोर्ट ने सीआईसी में मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति के संदर्भ में हुई प्रगति पर 11 मई तक अदालत को सूचित करने का निर्देश दिया है। दरअसल मुख्य सूचना आयुक्त का पोस्ट पिछले एक साल से खाली पड़ा है। जबकि आयोग में हालत यह है कि यहां लंबित पड़े मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।इस वजह से सूचना मांगने वालों का उत्साह लगातार कम होते जा रहा है।लंबित मामलों को सुलझाने का एक तरीका तो यह हो ही सकता है कि आयोग अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करे। आयोग में दस आयुक्त नियुक्त हो सकते हैं लेकिन ध्यान देने लायक बात यह है कि यहां मुख्य सूचना आयुक्त का पद ही खाली है। भला और किसी आयुक्त से क्या उम्मीद करें। अब हालत ये है कि कोर्ट को दिशा निर्देश जारी करना पड़ रहा है। ये हालात केंद्रीय सूचना आयोग के हैं। राज्यों के हालात की तो बात ही ना करें। सिर्फ उत्तरप्रदेश में हाल ये है कि यदि नए अपील आने बंद हों जाएं तो पुराने अपीलों का निपटारा करने में एक साल लग जाएगा।
ऐसे बहुत कम कानून या अधिकार होते हैं जो लोगों की आकांक्षाओं के मूर्त रूप में लंबे संघर्षों के बाद मिलते हैं । सूचना का अधिकार कानून इनमें से एक है। अब सवाल ये उठता है कि जिस कानून को पाने के लिए लोगों ने इतना लंबा संघर्ष किया, जिस कानून ने ओडीसा के घने जंगलों से लेकर गंगा-यमुना के मैदानों तक और हिमाचल के पहाड़ों से लेकर अंडमान तक आम लोगों को आवाज़ दिया, उस कानून को यूंहि छोड़ दिया जाएगा।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-55154511833586315602010-06-29T00:47:00.000-07:002010-06-29T01:05:07.780-07:00बदल दिया ठिकानाबहुत दिनों से कोई पोस्ट नहीं डाली थी सोचा कुछ लिख मारूं। क्या ? मुझे खुद पता नहीं । अपने ब्लॉग को यूँही अकेला तो नहीं ही छोड़ा जा सकता है। सन्डे को घर शिफ्ट किया .एक कमरे में रहते रहते बोर हो चूका था। लेकिन कटवारिया सारे का मोह नहीं छूट रहा था। सात साल में जगह से प्यार हो गया था। जब से दिल्ली आया तब से वहीँ पर रह रहा था। इ-८८ ...सबसे पहले निचले तल पर रहता था फिर तीसरे तल पर फिर चौथे तल पर। भारतीय जन संचार संस्थान से हिंदी पत्रकारिता का कोर्स किया तो पैदल ही जाते थे। फिर दूरदर्शन न्यूज़ से जुड़ा ऑफिस खेल गाँव में था तो ये जगह मेरे लिए काफी मुफीद थी.शादी के बाद भी वहीँ रहा। एक साल तक एक कमरे के फ्लैट में ही जिंदगी गुजारी। दोस्तों ने खूब जोर लगे लेकिन मैं टस से मस नहीं हुआ। प्यार हो गया था कटवारिया सारे से। दो कमरे का घर भी ढूँढा लेकिन कभी किराया पसंद नहीं आया कभी फ्लैट। इसिलए चुप्पी मारकर पड़ा रहा.फिर अभी पत्नी की तबियत ख़राब हो गयी। अबकी भाई लोगों ने जोर लगाया और मैं इस दफा संभल नहीं पाया। बह गया । इस सन्डे को दो कमरे के फ्लैट में शिफ्ट हो गया। खूब खुला खुला फ्लैट है। आगे पीछे बालकनी है। एकदम मस्त। कल तो कटवारिया का ही हैंग ओवर था आज जब सो कर जगा तो तैयार था नयी जगह में नयी सुबह के लिए। पांडव नगर में ।Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-57568810054914316152008-07-22T05:46:00.000-07:002008-07-22T06:19:33.156-07:00सबसे बडा लोकतंत्र, वोटतंत्र या नोटतंत्र ?<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjshC0v4Tu3GgjLLZC20k8k8yMXIV4n_PpRgTInUOPbRkfFLJpBJI_fr4hP8UTbVudBtlLZA9-3wDfTzwGBVL6h64uavaBM0O8tY0QdjZZb4mkHaUrSneXUONIVk4gx7phWF9hk7DNk4PO7/s1600-h/parlament2.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5225824795703352034" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjshC0v4Tu3GgjLLZC20k8k8yMXIV4n_PpRgTInUOPbRkfFLJpBJI_fr4hP8UTbVudBtlLZA9-3wDfTzwGBVL6h64uavaBM0O8tY0QdjZZb4mkHaUrSneXUONIVk4gx7phWF9hk7DNk4PO7/s320/parlament2.jpg" border="0" /></a><br /><div></div><br /><p>२२ जुलाई २००८ का दिन भारतीय लोकतंत्रीय इतिहास का सबसे काला दिन। भारतीय लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाली संसद में बहस चल रही होती है।संप्रग सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह द्वारा पेश किये गये विश्वास मत पर बहस। अचानक चारो ओर नोट ही नोट दिखाई देखने लगते हैं। १००० -१००० के नोटो के बंडल लोकसभा अध्यक्ष के सामने की टेबल पर फैला दिये जाते हैं। आरोप, कि ये पैसे सांसदों को खरिदने के लिये दिये गए ताकि वे संसद से अनुपस्थित रहें या सरकार के समर्थन में वोट दे। सारे देश का सर शर्म से झुक जाता है। अपने जनप्रतिनिधियों की इस हरकत पर।पिछले कुछ दिनों से ये बार बार आरोप लगते रहा था कि सौदेबाजी हो रही है।हार्स ट्रेडिंग हो रही है। प्रधानमंत्री कहते हैं, सबूत पेश करो। अगले ही दिन यानि २२ जुलाई दिन मंगलवार शाम के चार बजे विपक्षी पार्टी भाजपा के तीन सांसद संसद भवन में एक बैग लेकर आते हैं। कहते हैं, " यह है सबूत।" फिर दिखता है, कि कैसे हमारा सबसे बडा लोकतंत्र नोट्तंत्र में बदल चुका है। कहते हुए शर्म आती है कि हम सबसे बडे लोकतंत्र हैं। सब कुछ साफ साफ दिखता है। कैसे और क्या हो रहा है। तो सवाल ये उठता है, कि क्या हम इससे भी निचे गीर सकते हैं? क्या यही है लोकतंत्र ? न्यूक डील हो या ना हो ...सरकार रहे या ना रहे, लेकिन क्या फैसला इस तरह से होना ही लोकतंत्र की निशानी है ? भारत की जनता पूछ रही है, लेकिन इसका जवाब कौन देगा... </p>Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-53119861249788078742008-07-03T06:29:00.000-07:002008-07-03T06:42:21.780-07:00इंसानियत के नाते<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3Etg06zvfYgVG2qYOKT4kZcz92OZCrk1hKamqL89EyP7JtzITptBcBHNOsB4OZ4MfYylleEkcMz5uCq0DU-fx4agzp4d-EDMZDCIXQsb0Xqad0BRFEHq3F6464980k4RBQmVJhDPWghKk/s1600-h/Jugal+and+Muralidhar.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5218780600963599330" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3Etg06zvfYgVG2qYOKT4kZcz92OZCrk1hKamqL89EyP7JtzITptBcBHNOsB4OZ4MfYylleEkcMz5uCq0DU-fx4agzp4d-EDMZDCIXQsb0Xqad0BRFEHq3F6464980k4RBQmVJhDPWghKk/s320/Jugal+and+Muralidhar.JPG" border="0" /></a><br /><div></div>इनसे मीलिये.ये हैं जुगल केवट और मुरलीधर केवट. मध्यप्रदेश के टिकमगढ ज़िले के जतारा प्रखंड में बंधा गांव के रहने वाले ये दोनो भाई आज एक मिसाल बन गये हैं। जब पूरा बुंदेलखंड पीने के पानी के लिये तरस गया था इन भाईयों ने गांववालों को पानी पिलाने के लिये ना सिर्फ़ अपनी सारी फसल सुखने दी बल्कि अपने बैलॊं को भी बेच दिया।<br />बुंदेलखंड के अन्य हिस्सों की तरह ही टिकमगढ ज़िले ने भी भारी सुखे की मार झेली.लगातार पांचवे साल का सुखा. लेकिन इस बार के सुखे की हालत ये, कि वहां के लोगों ने इसे अकाल कहना शुरु कर दिया. खेती कैसे होगी इस बात की चिंता छोडिये, पानी कैसे पियेंगे इसके बारे में कुछ उपाय बताइए.सारे तालाब और कुयें सुख चले. जानवरों के चारा और पानी की कौन बात करे आदमी के पीने के पानी के लाले पड गये. बोरवेल में पानी का स्तर इतना नीचे चला गया कि वो किसी काम के नहीं.नया बोरिंग कोई क्यों कराए भला.इस बात की क्या गारंटी कि २५० फ़ीट पर पानी मिल ही जाये.<br />बंधा गांव के जुगल और मुरली ने भी ऐसा सुखा पहली बार ही देखा. जुगल और मुरलीधर के परिवार में कुल बारह लोग हैं. पांच एकड की खेती है इनके पास. इस खेती से सभी के खाने पीने की जुगाड हो जाता है और वक्त बेवक्त के लिये कुछ बचत भी हो जाती है. पिछले पांच सालों से अकाल पडने के बावजूद इन दोनों भाइयों को कभी किसी चिज की दिक्कत नहीं हुई.आराम से बेटिय़ों की शादी की और पूरे गांव को भोज भी दिया.लेकिन इस बार के सुखे ने तो जैसे कमर ही तोड दी. जुगल ने पांच एकड में गेंहूं की खेती की थी,लेकिन डेढ एकड की फ़सल तो सिंचाई ना होने से तुरंत ही सुख गयी.उम्मिद बची थी शेष उस साढे तीन एकड ज़मीन से, जो कुंए के बगल में था.वह कुआं ही जुगल और मुरलीधर के लिये अंतिम आस था. जुगल के गांव बंधा में दो बडा तालाब, एक छोटी तलैया और छ: कुंए हैं. पिछले पांच सालों में जब जेठ की तपिस सारे कुओं और तालाबों का पानी सोख लेती थी तब भी बंधा गांव के कुछ कुंए या हैंडपंपों में पानी बचा रहता था. पीने के लिये पानी की कमी कभी ना हुई.तनिक दूर से पानी ढो के लाना तो एक आम बात थी, लेकिन जब पानी ही ना हो तो क्या किया जाये...<br />इस साल के सुखे ने कुछ ऐसा कहर ढाया कि बांध गांव के सारे तालाब और कुंए सुख गये. धीरे धीरे बोरवेल और हैंडपंप भी जवाब दे गये.बचा सिर्फ़ जुगल और मुरली का कुंआ जिसमें पानी बचा था. इनके सामने एक बडी मुश्किल थी.या तो खेती बचाये या फिर गांव के लोगों को पानी पिलायें. एक तरफ़ बारह लोगों के परिवार के खाने की समस्या तो दूसरी ओर गांव के १५०० लोगों के लिये पीने के पानी की समस्या.बडी विकट दुविधा खडी थी इनके सामने.<br />३९५ परिवार वाले इस गांव में केवटों के सिर्फ़ ६० परिवार ही हैं. बाकी में ठाकुर, अहिरवार, नाई और पाल जातियों के परिवार हैं. बुंदेलखंड में जहां जाति के नाम पर लाशें गिरती हो वहीं के एक गांव में ऐसी समस्या खडी हो जाये तो क्या कहा जा सकता है...कठीन परिस्थितियों में हम जो निर्णय लेते हैं वही तय करती इंसान के इंसान होने के दावे को.इन दोनों भाइयों ने इस पर निर्णय लेने में देर नहीं की.अपना कुंआ खोल दिया पूरे गांव के लिये.<br />धीरे धीरे इनकी साढे तीन एकड में खडी गेहूं की फसल सुख गई. सुखते फसल को देखकर शुरु में जो आंसू निकलते थे, सुखती हुई फसल के साथ वो भी सुख गये.दो बैल थे. बीक गये. बडे अरमान से दो साल पहले थ्रेसर लिया था इस बार यूंही खडा रहा.<br />गांव के लोग आते, पानी ले जाते और दुआ करते.उनके चेहरे पर सुकून और खुशी के बाह्व देखकर इन दोनों भाईयों के चेहरे पर मुस्कान आती.जुगल से पुछिये तो कहते हैं," गांव के लोग पाने भर के ले जाते थे हम कैसे भगाते.उनके गोद के बच्चे पानी के लिये प्यासे थे और हम भगा देते? हमसे तो ये नही होना है चाहे मेरी ज़मीन ही क्यों ना बीक जाये.बैल के बिकने का दुख है लेकिन कोई बात नहीं भगवान ने चाहा तो फिर खरिद लेंगे."<br />बुंदेलखंड का पूरा इलाका गर्मी के मौसम में पलायन को अभिश्प्त है.पिछले साल मुरली भी दिल्ली गये थे. खेती का काम जुगल ने संभाल रखा था.मुरली से पलायन, सुखे और और उससी उपजे दर्द को पूछे तो कहते हैं," हां दिल्ली भी गये थे पिछली बार. बहुत कष्ट हुआ था. लेकिन जब मैने यहां लोगों को पानी के लिये बिलबिलाते हुए देखा तो मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ.बहुत कम था मेरा कष्ट इन लोगों के कष्ट से." चेहरे पर एक दर्द भरी मुस्कान उभरती है लगता है उनके सामने दिल्ली में बिताये पल जिवंत हो उठे हैं. गांव वालों के चहेरे की मुस्कान की छाया मुरली के चेहरे पर भी दिखती है.Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-49202672496350607292008-04-10T06:41:00.000-07:002008-04-10T07:17:14.707-07:00सबसे सेक्सी जीव कौन?<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgVcvdYh93bTSQW6_dSWYAASvqFIOrNkF3Qo8U6cQJQcwpXd2Z0Fe4ybLqtloampqfDXcOOsuEQxkbg3FM9D9g7WxynBJFrbH0pOuNmgCBhGEvI745YerwxVWBOEj_x6IAIs8PE1V6rBsa/s1600-h/cobra.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5187618611824894498" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgVcvdYh93bTSQW6_dSWYAASvqFIOrNkF3Qo8U6cQJQcwpXd2Z0Fe4ybLqtloampqfDXcOOsuEQxkbg3FM9D9g7WxynBJFrbH0pOuNmgCBhGEvI745YerwxVWBOEj_x6IAIs8PE1V6rBsa/s320/cobra.jpg" border="0" /></a><br /><p>आज मैं अपनी एक महिला सहयोगी के साथ कैंटीन में चाय पी रहा था।कुछ कुछ बातें हो रही थीं। तभी उन्होनें कहा, "पता है सबसे सेक्सी जीव कौन है?" मैनें खुब सारे जीवों के नाम गिनाये। तब मुस्कुराते हुए उन्होनें कहा ,"तुम नहीं समझ पाओगे। जानते हो सबसे सेक्सी जीव सांप होते हैं।" मुझे पसीना आ गया। सांप और सेक्सी। क्या नजरिया है देखने का। और वो बतायें जा रही थी। कितना लहरा कर चलता है। मतवालों की तरह। सेक्सी चाल। और उनके हाथ सांपों के चलने की नकल कर रहे थे। उसके शरीर पर जो धारियां बनी होती हैं कितनी खुबसूरत लगती है? जब उसपर सूर्य की किरणें पडती हैं तब क्या खूब दिखता है".</p><br /><p>सच बताउं मुझे सांप का नाम सुनकर ही डर लग जाता है। सांप को देखने के बाद कभी उसके शरीर को ठीक से देखने की फ़ुरसत ही नहीं मिली। सर पर पांव रख कर भागे तो सुरक्षित जगह देखने के बाद ही<span class=""> रुके और </span>ये मोहतरमा बता रहीं हैं कि सांप बहुत सेक्सी लगते हैं। उफ़...कल्पनाशिलता की हद देखिये।और चेहरा कैसा खील गया है इनका उसकी खुबसरती का वर्णन करते समय।</p><br /><p>मालूम है मैनें एक बात बहुत शिद्दत से उनसे पूछना चाहा था ," यदि सांप जहरीला नहीं होता तो क्या आप उसे पालतू बना लेती? क्या उसमें ज़हर नहीं होता तब भी क्या वह आपको उतना ही रोमांच से भर देता।" मैं उनसे पूछ ना सका। लेकिन आपसे मैं पूछना चाहता हूं," क्या आपको भी सांप सेक्सी दिखते हैं?"</p>Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-12297425868236705472008-01-25T03:16:00.000-08:002008-01-25T04:41:15.101-08:00जूदेव के कुत्ते<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-Ex6a-dhZFBHgnt1M9qwRGs8A97pTztI3UxnWili_fOv_puOhf9KV3gN5mIFUB_8PXcZgV1LRBTZ9k7xSDdd_x7yflbRGJgSg_ZSJOYGITn_J9Ussia26X4mB5EBtKvbXBubIuPsjxmSJ/s1600-h/judev.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-Ex6a-dhZFBHgnt1M9qwRGs8A97pTztI3UxnWili_fOv_puOhf9KV3gN5mIFUB_8PXcZgV1LRBTZ9k7xSDdd_x7yflbRGJgSg_ZSJOYGITn_J9Ussia26X4mB5EBtKvbXBubIuPsjxmSJ/s320/judev.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5159392324115441986" /></a><br />क्या आप दिलीप सिंह जूदेव को जानते हैं? ये वही जूदेव हैं जो अपने छत्तिसगढ के कुछ इलाकों में अपने घर वापसी(पुनर्धमांतरण) कार्यक्रम को लेकर चर्चा में रहे हैं.इसके अलावा तहलका के स्ट्रींग आपरेशन में जूदेव को पैसा लेते हुए दिखाया गया था.उसमें जूदेव को यह कहते हुए सुना गया था , <em><blockquote>पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं.</blockquote></em><br /><br />जशपुर में जूदेवजी से मुलाकात हुई.रात में फोन किया तो मालूम हुआ जूदेव जी व्यस्त थे.उस दिन जशपुर में राज्य सरकार का और राज्य भाजपा का एक मिलाजुला कार्यक्रम था.दरअसल चुनावी मौसम में पूरे छत्तिसगढ में राज्य सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिये ३ रुपए प्रतिकिलो चावल बांटने का फ़ैसला किया है. सो पुरे राज्य के हर ज़िले में भाजपा के बडे बडे नेता मौजूद थे. इस योजना का शुभारंभ करने के लिये.गाडियों में भर भर कर लोगों को ज़िला मुख्यालय पहुंचाया गया था.सो उन्हें वापस भेजने का काम भी देर रात तक चलता रहा.<br /><br />खैर सुबह में मिलने का समय तय हुआ.हम जशपुर में उनके घर पहुंचे.घर क्या था पूरा फ़ार्म हाउस था.या यूं कहें बगीचे के बीच में एक घर.जूदेव आये. उनके साथ उनके चार कुत्ते भी आये. हम बैठे. नाश्ता आया.बिस्किट और चाय के साथ. हमारा कैमरामैन कुछ कटअवेज़ बनाने लगा. बात शुरु हुई. अपनी मूछों पर ताव देते जूदेव कभी दोनों हाथों को फ़ैलाते कभी दोनों हाथों को सामने की तरफ़ लहराते.पूरा टशन.शानदार व्यक्तित्व के मालिक जूदेव की हर चीज में टशन.उनकी हर अदा सामने वाले को अह्सास कराती हुई कि मैं यहां का राजा हूं. कि किस तरह से उनके पिताजी ने सरदार पटेल को वो राज्य यूहीं दे दिया जिसे उन्होनें अपने तलवार के बल पर जीता था.<br /><br />बातें होती रहीं. तभी उन्होनें अपने कुत्तों को बुलाया. चारों कुत्ते दुम हिलाते हुए उनके पास आ गये. दीलिप सिंह जूदेव ने कहा देखिये मैं एक खेल दिखाता हूं. उन्होनें बिस्किट का एक टुकडा कुत्तों की तरफ़ फेंका. उनका कुत्ता लपका. जूदेव ने तुरंत मना किया,"नहीं".और कुत्ता रुक गया. उन्होंने दुसरे टुकडे को दूसरे कुत्ते की तरफ फ़ेंका. वो भी लपका. उन्होनें कहा," नहीं". वो भी रूक गया. ऐसा उन्होनें हर कुत्तों के साथ दुहराया. और हर कुत्ता ऐसे ही उनकी बातों को माना.<br /><br />वो लगे कहानी सुनाने. इन कुत्तों ने छत्तिसगढ की सरकार बनवाई है. जब चुनाव से पहले भाजपा के विधायकों को कांग्रेस ने तोड लिया था तो मैंने जश्पुर की रैली में इन कुत्तों का यह ड्रामा जनता को दिखाया. कहा ये चार पैर का जानवर मेरी बात मानता है और ये दो पैर वाले आपकी बात नहीं सुनते! आप इन दो पैर वालों को ठीक किजिये मैं उन्हें खराब करने वालों को संभालता हूं.फिर क्या था...सभी पूर्व विधायक चारो खानों चित.और रायपुर में कमल खिला.यह तो हमारे दुश्मनों ने हमारे खिलाफ़ साजिश कर दी.क्या हम मजाक में कोई शेर भी नहीं पढ सकते...पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं...<br /><br />मैनें बडे ध्यान से सुना और देखा भी. सोचता रहा. क्या मायने हैं इन बातों के? जूदेव ने इशारों में क्या आज के नेत्ताऒं के उपर छिंटाकशी की? शायद नहीं शायद हां...मुझे समझ में नहीं आया ...आखिर जूदेव किस ओर इशारा कर रहे थे? आखिर वो किसको कठघरे में खडा करना चाहते थे...आपको कुछ समझ में आये तो हमें भी बतायें...Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-28543979930507383392007-12-26T06:25:00.000-08:002007-12-26T06:49:22.137-08:00मोदी जीता था मोदी जीता है और मोदी जीतते रहेंगे<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjsE1tGhgFHL9c0giD74kdd74DS9C1Tnn1Yl3VGkQOwUtUTbYzZcKgr5RfSPUlbBZH1fcGjVz1gBJwLD2wEvYbFXvb9ySyVLIG7GtwrHTurHGEZCpu5nfvN2IGevwjg0JNF8Ln6-cDKnRx8/s1600-h/modi.bmp"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjsE1tGhgFHL9c0giD74kdd74DS9C1Tnn1Yl3VGkQOwUtUTbYzZcKgr5RfSPUlbBZH1fcGjVz1gBJwLD2wEvYbFXvb9ySyVLIG7GtwrHTurHGEZCpu5nfvN2IGevwjg0JNF8Ln6-cDKnRx8/s320/modi.bmp" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5148293698311440530" /></a><br />आज गुजरात में मोदी की जीत पर तमाम बातें हो रही हैं. तथ्यों की चीर फाड हो रही है. कई कारण गिनाये जा रहे हैं. कोई सोनिया गांधी के मौत के सौदागर वाले भाषण को दोषी बता रहा है कोई गुजरात के विकास के माडल को जिम्मेदार ठहरा रहा है.कोई कुछ और.लेकिन एक बात मैं यहां जोडना चाहता हूं कि जब तक हम छद्म धर्मनिरपेक्षता का लबादा उतार कर नहीं फेकेंगे इस देश में मोदी पैदा होते रहेंगे और चुनाव भी जितेंगे.वो भी पुरे ५० फ़िसदी वोट के साथ.Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-46154895496687945832007-12-10T21:55:00.000-08:002007-12-11T02:43:05.848-08:00घर भी छूटे और घाट भी !<em><strong>मुहल्ले में जाति के उपर चल रही बहस के बीच में मैने भी कुछ कहा था एक पत्र के माध्यम से. इसके बाद दिलीप भाई ने उस पत्र क जवाब भी दिया.उस पर मुझे कुछ कहना था. मैने उसे सीधे अविनाश दादा के पास भेज दिया. हालांकि उन्होनें उसे पोस्ट तो नहीं किया हां मोहल्ले पर लिखने को आमंत्रित जरुर किया. मैं उसी बात को आपके सामने रख रहा हूं जो मैं वहां कहना चाहता था.</strong></em> यह पोस्ट मोहल्ला पर भी छप चुका है.<br /><br />बात उस समय कि है जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फ़र्स्ट इयर का स्टुडेंट था. सब कुछ नया था मेरे लिये.नये लोग, नयी बातें और वहां के छात्र राजनीति को करीब से देखना.सब कुछ नया था. एक गांव से निकल कर आया था मैं. घर में राजनीति की बातें होती रहती थी इसलिये नेताओं के नाम और उनके कामों के बारे में सुन रखा था. इसलिये राजनीतिक बातों में रुची थी.लिहाज़ा मैंने यह निर्णय लिया था कि हर जलसों में जाउंगा.वहां उनके नेताओं को सुनुंगा. <br /><br />दो तीन माह हुए थे वहां गये हुए.पता चला कि सीताराम येचुरी आने वाले हैं. मैं भी वहां गया.खुब बातें हुई. जाति,धर्म,वर्ग और समाज से लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी जम कर बहस हुई. सच में पहली बार मैंने एक ऐसे वक्ता को सुना था जिसने मुझे प्रभावित किया था.मेरी सोच को भी. तभी बहस वर्ग और जाति पर केंद्रित हुई.येचुरीजी कह रहे थे...हमें जाति और वर्ग को मिला देना होगा. जब तक हम जाति और वर्ग को मिला कर नहीं लडेंगे तब तक वर्ग को नहीं खत्म किया जा सकता...बारी आयी सवाल जवाब की.मेरा सवाल था," यह काम हम कैसे करेंगे? मैं जाति से ब्राहण हूं .इस वर्ण व्यवस्था में सबसे उपर हूं.और मैं गरीब हूं . इतना कि दो जून की रोटी मैं बडी मुश्किल से जुटाता हूं.मेरा दोस्त है गांव में मेरे ही जैसा पैसा कमाने वाला एक दलित.हम साथ में खेतों में काम करते हैं. दोपहर में साथ में बैठकर रोटी खाते हैं.यदि आप लडाई को वर्ग से हटाकर वर्ण पर लायेंगे तो आखिर मैं अपने ही जाति के एक आदमी को कैसे मार सकता हूं.( मैं बात को एकदम इक्स्ट्रीम पर ले गया था).क्योंकि कोई मेरा चाचा है कोई भैया है कोई दादा है. आर्थीक हैसियत भले ही मेरी वैसी नहीं है लेकिन समारोहों में उन घरों में उतनी ही इज़्जत मिलती है. हां अगर बात सिर्फ़ वर्ग की हो तो मैं अगली पंक्ती में खडा मिलुंगा लडने के लिये. क्योंकि मेरे अंदर भी गुस्सा है. येचुरीजी ने सिर्फ़ एक लाईन में जवाब दिया, "हमें यही करना होगा और अपनी मानसिकता बदलनी होगी." <br /><br />मैं दुबारा सवाल करना चाह्ता था लेकिन, समय की कमी थी. एक बात जो मैं वहां पुछना चाह्ता था वो यह था," आप क्या चाहते हैं कि हम ना घर के रहें ना घाट के. हम अपने चाचा, दादा और भैया के खिलाफ़ लडें वर्ग के नाम पर.और अचानक एक दिन पता चले की रणवीर सेना और एम सी सी की मारकाट में गांव के सारे सवर्णों के घर में आग लगा दिया गया.और मेरा परिवार उस आग की भेंट चढ गया.( यह सब होगा जाति के नाम पर)... <br /><br />दिलीप भाई हम तो प्रतिरोध के स्वर के साथ अपना स्वर मिलाने के लिये तैयार हैं.लेकिन उसकी कीमत क्या होगी? कौन हमें भरोसा दिलायेगा कि जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा. कौन हमें भरोसा दिलायेगा कि तब बात सिर्फ़ योग्यता के ही आधार पर की जायेगी. <br /><br />दिलीप भाई मैं आपकी इस बात से सहमत हूं कि उत्पादन संबध में परिवर्तन हुआ है.बाज़ार और वैश्वीकरण ने जाति के ज़हर के प्रभाव को धीमा किया है.लेकिन हमें तो जो प्रतिरोध के स्वर सुनाई देते हैं वहां तो बाज़ार विरोधी बातें कानों में पडती हैं.आखिर इस तरह के अंतर्विरोधों का हम क्या करें. हम उन ताकतों से कैसे निपटें जो खडे तो होते हैं वर्ग आधारित समाज की रचना करने को लेकिन उनकी सारी ताकत अपना स्वार्थ साधने में खर्च हो जाती है. हो सकता है कि यह बहुत छोटी बातें हैं.लेकिन मैने यह देखा है कि किस तरह से दो ठाकुर परिवारों में झगडा होता है और एक परिवार का बडा लडका एम सी सी को फ़ंड करता है क्योंकि दुसरे परिवार का रणवीर सेना से अच्छे ताल्लुकात होते हैं. हमें क्यॊंकर भरोसा हो ऐसे प्रतिरोध पर. <br /><br />दिलीप भाई जातीय दंभ और अभिमान की बातें तो बेमानी है.सच्चाई यह है कि हम अगर जाति को खत्म करने की बात करते हैं तब भी एकबार सामने वाला सोचता है कि क्या ये सच बोल रहा है? तब हमें अपनी बात बहुत ही जोरदार तरीके से रखनी होती है.उससे भी ज्यादा जोरदार तरीके से जो इस व्यवस्था का शिकार रहा है. हमें हर बार अपनी आवाज़ उंची करनी पडती है. कुछ ठीक उसी तरह जैसे इस देश के मुसलमानों को हर बार देशभक्त होना साबीत करना पडता है.यानि जब आप पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हों तो उनसे ये उम्मीद की जाती है कि वो और ज़ोर से वही नारा दुहराये.आवाज़ कमज़ोर पडी नहीं कि उन्हें शक की निगाह से देखा जाता है. <br /><br />तो लीजिये ...मैं अपनी आवाज़ उंची करते हुए और बहुत ही जोरदार तरीके से यह कहना चाहता हूं कि मैं जाति व्यवस्था का घोर विरोधी हूं.मैं हर काम का कद्र करता हूं.मेरी निगाह में कोई काम बडा नहीं कोई काम छोटा नहीं. मैं उस व्यवस्था पर थूकता हूं जो दो इन्सानों में फ़र्क करती है. <br /><br />गाली देने नही आता. और ...इससे ज़्यादा जोरदार तरीके से मैं अपनी बात रख सकूं इतनी मजबूत नहीं है मेरी लेखनी. और कोई तरीका हो तो आप बतायें ...जिससे मैं साबीत कर सकूं कि मुझे अपनी जाति को लेकर रत्ती मात्र भी अभिमान नहीं है.आप निकालिये जाति की शव यात्रा. हम सबसे आगे आगे नाचते मिलेंगे.Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-1569344532451069762007-12-08T04:39:00.000-08:002007-12-08T04:46:11.117-08:00दुबेजी का पत्र<em><em>मुहल्ले में बहुत दिनों से एक दुबेजी पर चर्चा हो रही थी.वो दुबे जी लैट्रीन साफ़ करते हैं.मुझे भी मिल गये.उन्होनें मुझे मुहल्ले वालों के नाम एक पत्र दिया. कहा कि इसे सही जगह पहुंचा दें.मैने उस पत्र को मुहल्ले के लोगों तक पहुंचा दिया है.लेकिन आप भी उसे देख सके इसलिए दुबे जी की अनुमति से यहां भी छाप रहा हूं.</em></em><br /><br />सब लोगन को प्रणाम. मैं दुबेजी बोल रहा हूं. वही दुबेजी जिसे दिलीप भाई ने लैट्रीन साफ करते देख लिया था.मैं पहले अपना पुरा परिचय देना चाहता हूं.इसके बाद और बात होगी.मेरा नाम रामानंद दुबे है. मेरा घर हुआ गोरखपुर में चिल्लूपार.अब गांव मत पुछियेगा. हाथ जोडते हैं. <br /><br />आपलोगों को मैं यह पत्र नहीं लिखता लेकिन आपलोग हमारे उपर इतना चर्चा कर लिये कि रहा नहीं गया.अविनाश भाई तो असली नारद हैं.उकसा देते हैं फिर खेल देखते रहते हैं.हां तो... मैं किसी पर कोई आक्षेप नहीं लगा रहा.मैं क्या लगाउंगा आक्षेप? मैं कुछ कहना चाह रहा था इसलिये सामने हूं. <br /><br />मेरे गांव में २५ घर है दुबे लोगो का.दुबे टोली कहते हैं आज भी...ठीक वैसे ही जैसे ७० घर दलितों वाले मुहल्ले को चमटोल.गांव के दखीन में है यह मुहल्ला.ग्वाल लोग भी हैं १० घर.ग्वालों का टोला कहते हैं जहां वो रहते हैं.उनके घर के पास लंबा चौडा मैदान है.और बाकी २० घर में सब जाति है.हमारे गांव के पुरब के पोखरे पर काली मां का मंदिर है.उसमें जेठ महिने में काली मां की पूजा होती है.पहले जब देवी आती थीं तो दुबे बाबा (पूरा गांव इसी नाम से जानता था)के शरीर पर आती थी.हम लोग छोटे थे तब.लेकिन जब थोडा बडा हुआ तो देखा कि अब काली माता गांव के बासुकी भैया(वो चमटोल में ही रहते थे)पर आती थी. हमलोग जाते थे उनके पैर पकडते थे. यह डर भी साथ कि कहीं काली मां नाराज़ ना हो जाये. वो नीम के छरका से हमें मार कर आशिर्वाद देते थे. जब पहली बार मैंने उन्हें उस रूप में देखा था तो दंग रह गया. दिमाग में काली मां की तस्वीर बस गयी. इसके बाद वो किसी काम से हमारे घर के पास आये थे. हमने दौड के उनका पैर छुआ था. वहीं खडे थे हमारे बडका बाबुजी. कस के डपटे थे बासुकी भैया को. "का रे बसुकिया बाभन के बच्चे से पैर छुआता है रे?".."मालीक"...कुछ नहीं बोल सके थे वो और चले गये थे.हमे समझ में आ गया कि चमटोल में रहने वालों के पैर नहीं छुआ जाता. इसके बाद तो जब कहा गया तो मैने पैर छुआ ...नहीं तो बस ऐसे ही निकल गये...धीरे धीरे हुआ यह कि आठवी तक जाते जाते हमहीं को गांव के कई लोग पांव लागो पंडीजी कहने लगे. उसमे बासुकी भैया भी थे. अब मैं उनको भैया नहीं कहता था. <br /><br /> आठवीं के बाद नहीं पढ पया. घर में पैसे नहीं थे. मेरा एक बचपन का दोस्त था घुरहुआ.उ सका असली नाम था घुरे राम. पता नहीं कब बंबई चला गया था. वहां से आता तो लक दक लक दक कपडा,जूते और लाल मोजे,बढिया चेक वाली लुंगी पहन कर घुमा करता. हमारे पास था वही एक पुराना बंडी और जज्मान के यहां से मिली हुई धोती. .घुरहुआ हमको बांबे की कहानी सुनाता तो हम बस सुनते रह जाते. इसी बीच शादी हो गयी. शादी हो गयी तो बच्चे भी हुए. तीन लडकियां और दो लडके. बडी लडकी जब १२ साल की हुई तो चिंता सताने लगी. आमदनी अठ्ठनी और खर्चा रुपैया की जगह आमदनी चवन्नी और खर्चा दो रुपैया हो गया था. कभी कभार जज्मान के घर शादी व्याह होता था तो कुछ पैसा हाथ में आता था. लेकिन जज्मानी भी तीन भाईयों में बंट गयी थी. मुश्किल से खर्चा चलता था. उम्र के ३१ वें पडाव पर आकर बडा कोफ़्त होता था. जमीन थी नहीं कि खेती - वेती करते. लगातार परेशान रहते थे कि कैसे क्या करें? इसी सोच में दिन कटता था. सारे बाल सफ़ेद हो गये और शरीर गल कर आधा.( दिलीप भाई ने शायद गौर नहीं फ़रमाया.शायद वो यह सुनकर और देखकर ही हैरान परेशान रह गये कि दुबेजी लैट्रीन साफ कर रहे हैं.अरे भैया सब करना पडता है.) <br /><br />तीन साल पहले होली में घुरहुआ फिर गांव आया. साथ में भंग छनी. होरी गाया गया. घुरहुआ नगाडा के थाप पर बडा कर्कश नाचता है. हम नाचे... गाये....पर्व मनाकर खाली हुए तो बात शुरु हुआ.हमारा हाल देखकर बोला,"भैया हियां का रखा है मेरे साथ बांबे चलो वहीं काम करेंगे. ठीक ठाक पैसा मिल जाता है".घर में बाल बच्चों को छोडकर बांबे कैसे जायें? बडा मुश्किल सवाल था. घरवाली से बात किये तो कहा कि जवान लडकी सर पर खडी है और आप कहते हैं बांबे कैसे जायें! मैं घर संभाल लूंगी आप जाइये. मैं कुछ पैसे लेकर बांबे चला. वहां गया तो उसी के घर पर रुका. घर क्या था ...एक कमरा था ..उसको सब खोली कह रहे थे. एक कमरे में चार लोग रहते थे. पांचवा था. अगली सुबह मैं घुरहु के साथ उसके काम वाली जगह पर गया. वो वहां का सुपरवाईजर था. दस लोग उसके अंडर में काम करते थे. ठेका जैसे काम होता था. पुरे आफ़िस की साफ सफ़ाई का ठेका किसी कंपनी को मिला था. उसी कंपनी में घुरहुआ काम करता था. हमें बताया गया कि यही काम होता है. क्या ना करता? छाती पर पत्थर रखकर मंजूर किया काम करना. आपको क्या लगता है हमको गुस्सा नहीं आया अपने आप पर...मन तो करता कि कहीं डूब मरें लेकिन बडकी का फोटो आंख के सामने नाच जाता था. कैसे करेंगे उसका ब्याह? <br />हमने घुरहुआ से वादा लिया कि वो किसी से नहीं बतायेगा कि मैं क्या काम करता हूं. तो भला कौन मेरी बडकी से ब्याह करता. कौन देता अपनी लडकी मेरे घर में. गांव वाले थुकते वो अलग. गांव में घुरहुआ और मेरी घरवाली को छोडकर किसी को नहीं पता मैं क्या करता हूं. <br /><br />पिछली गरमी में घर गया था तो मेरे एक जजमान के यहां शादी थी. मैं गया अपने नये कपडे पहन कर. जजमानी ज्यादा मिली. सब बोला कि पंडीजी खाली इसी खातीर बांबे से हियां आये हैं. भेखे भिख मिलता है मेरी माई कहती थी. एक लडका भी देख आया बडकी के लिये. उसके लिये पायल बनवाया है...उसको पहन कर चलती है तो रुन झुन रुन झुन पूरा गर गुंजता रहता है.बडा सकून मिलता है करेजे को.उससे ज्यादा सकून कभी नहीं मिला. <br />आज सबसे बडा सवाल मेरे सामने यही है कि मेरे बच्चे ठीक से रहें...अपना काम पूरा करूं .बच्चों की शादी वादी कर दूं. कुछ पैसे बचे तो फिर गांव जाकर अपना काम धाम करूं. दिलीप भाई पता नहीं आपने मुझे कहां देखा. बांबे में या दिल्ली में. मैं ऐसे अपने ही जैसे कई और लोगो को जानता हूं जो अलग अलग तरह का पेशा कर रहे हैं.कोई दुबे है, कोई तिवारी है, कोई चौबे, पांडे, शुक्ला और ओझा भी. ये सब लगे हैं साफ़ सफ़ाई में दर्जी के काम में यहां तक की हलवाई और मोची भी बने हैं. लेकिन एक बात मैं और कहना चाह रहा हूं ...दिलीप भाई महिलायें तो तैयार ही नहीं बल्कि वो अपना काम भी कर रही हैं ...आप जरा पुरुषों को आगाह किजिये ...वो समझने के लिये तैयार ही नहीं दिखते. <br /> <br />आप सबका<br />रामानंद दुबेAnil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-26138049637686880042007-12-03T03:01:00.000-08:002007-12-03T03:23:02.350-08:00<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhndIu3SqrOwpvd0xM3n6cxbYpQjLETawPbsgizKl1Rv0RjXt-uXMPIEWpDi2Nu1fWcNao6Kt6JvCtTxMYmjkDQVOK66HRTS7wB0DYPu8f4ew_yvZ3w54F5KNRIxuwCdYzaFH6EJ3chVHp5/s1600-r/candle.bmp"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiViUPJBtGfqAJKUUYvVom5HTA10nocLptnuMb1Es8phybV_dfZu5rjSVIqAQ1cbPsZonR23voUqJuzcNATi8FS_Ir9DIVllDjSKXDB4oPn7rZtvyu-29qCuwyN9O44zTLJdhFcdQuN_LV-/s320/candle.bmp" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5139705606401212242" /></a><br /><em><em>आज सुबह आफ़िस पहुंच कर ज्योंहि आनलाईन हुआ,मेरा ध्यान एक दोस्त के स्टेटस मैसेज पर गया.खुबसूरत पंक्तियां थीं.उन्होनें बताया कि ये कविता अमेरिकन कवियत्री एडना विंसेंट मिले ने लिखा है.मिले को पहली ऐसी महिला होने का गौरव प्राप्त है जिसे पुल्तिज़र पुरस्कार मिला.1923 में उन्हें इस सम्मान से सम्मानित किया गया.प्रस्तुत है उनकी एक कविता...</em></em><br /><br /><strong>First Fig</strong><br />My candle burns at both ends;<br /> It will not last the night;<br />But ah, my foes, and oh, my friends---<br /> It gives a lovely light!<br /><br /> <strong></strong>Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-40174789577112623452007-12-01T06:24:00.000-08:002007-12-01T06:26:24.951-08:00भारतीय लोकतंत्र की तस्वीर<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg51V8rAypR_WQLxDAOR2R0aITQJrQViFwu6wU6MeUM_cZMPCUnHXDzMQYcZASsubYNMO8dd6PmA-rKLXKSkHhyphenhyphenYdA_gGKm06qEMXz5TJPodDcL0WQ6t2m_vYiEKfruHa9xx65brZQd0tB4/s1600-r/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhD1M6FuXHyR9-FYAOU2wtxwny7iZgGwKAI5VzdeZBzhTQ-uhmWH0Cn8fAK6hzVwsTYv5y9ppLBJFSLWRNPNX_yoOivne-Yg3eMYcRI00y1tVokUiGDd4fpYzvR2cQVkR6XCK4AWmKxVkCN/s320/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5139010603383308002" /></a><br />सपने हमारी आंखों ने भी देखे थेAnil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-75863062342436749692007-12-01T03:58:00.000-08:002007-12-01T06:30:22.985-08:00लापोड़िया की राह<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2trxbRXj9uizvpguUXuoHy8BQuqOq_2BlSJtdNErKlFxjYdFkIi0kNBYv3J4TPMGVPMAziHHwISz83_f1bdIWB5D6QPNr_RmtUhhdD6kyEfW046Apv1nwrvr4iXUgFVXtVfgBxVQh8Tyx/s1600-r/shramdan.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiNe2km71m1lUDnqaQ6gNOAi8H2UEGPYey2MkYsAtvs_GO6oz3hk-n5ouxg9fqmfIzEsRyL2Ek0XuDQpHMkna4RWU8o52wdPDLUn6FRZ2xXWYO2WMrfMSrcTSDSeVMawctbdKWQQB_8EkQ2/s320/shramdan.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5139008443014758098" /></a><br /><br />राजस्थान में एक गीत बहुत ही मशहूर है। इस गीत का मतलब है... धरती पानी के लिए प्यासी है और उसने अपने पतिदेव इंद्र को बुलावा भेजा है। इंद्रदेव आते हैं और अपनी प्रेयसी का प्यास बुझाते हैं। लेकिन कभी कभी इंद्रदेव रूठ जाते हैं। धरती की प्यास नहीं बुझ पाती है। फिर धरती अपने पुत्रों को पुकारती है.<br /><br />नक्की धरती करे रे पुकार <br />पेड लगा कर करो श्रंगार...<br />नक्की धरती करे रे पुकार <br />चौका बना कर करो रे श्रंगार...<br /><br />धरती की पुकार को किसी ने सुना या ना सुना हो..... जयपुर ज़िले में दूदू ब्लाक के लापोड़िया गांव के लोगों ने ज़रूर सुना है। बात 70 के दशक के अंतिम दिनों की है जब यह पूरा इलाका लगातार तीन साल से अकाल की चपेट में था। लोग अपने जानवरों के साथ अपने- अपने गांव छोड़कर जा रहे थे। इस तरह गांव के गांव खाली होते जा रहे थे। लेकिन १८९ परिवार वाले लापोड़िया गांव के लोगों के दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था। गांव के कुछ नौजवान इक्कठा हुए और लोगों को भी इक्कठा किया। जी जान से मेहनत की और अपने गांव ही नहीं आस पास के गांव की भी तस्वीर बदल डाली। लापोडिया के रामकरन सिंह उन दिनों की याद करते हुए कहते हैं,"चारों तरफ सुखा पडा था.हम भी बहुत परेशान थे.सरकार ने काम के बदले अनाज कार्यक्रम चला रखा था.उसी समय हमने सोचा कि हम गांव छोडकर नहीं जायेंगे और हमने अपने गांव को हरियाली से पाट देने का संकल्प लिया." <br /><br />कहते हैं कि जो अपनी मदद खुद करता है उसकी मदद खुदा करता है. लापोडिया के लोगों के साथ उनका अपना खुदा था.लोगों ने जल संचयन के पुराने तरिकों को ही अपनाया। बड़े बड़े चारागाहों में चौका बनाकर बारिश के पानी का रूख तालाबों की ओर किया। गांवों की गलियों और घरों तक में बारिश की पानी की एक एक बूंद को संचित करने का जुगाड़ लगाया। तालाबों की मरम्मत की। मेड़ों पर पेड़ लगा दिया। धीरे धीरे जमीन के नीचे पानी का स्तर बढ़ा। रामकरन सिंह कहते हैं," हमने चौका बनाने का निर्णय लिया.इससे कई फ़ायदा हुआ.ज़मीन के निचे पानी का स्तर बढा. साथ में पुरे चारागाह के इलाके में हरियाली ही हरियाली नज़र आने लगी.जो घास बारिश के मौसम के बाद सुख जाती थी वो घास अब गर्मियों में भी कम ही सुखती है.इससे पशुओं को भरपूर चारा मिलता है और हमें दूध ज्यादा मिलता है."<br /><br />पिछले दो सालों की तरह ही इस बार भी लापोड़िया के आस पास बहुत कम बारिश हुई है। पर लापोड़िया के गाँव मे आज भी चारो तरफ हरियाली है और कुंओं में भरपूर पानी है। लापोड़िया के लोगों ने प्रकृति से प्यार किया और इन्हें उसका उपहार भी मिला। गांव की इस हरित क्रांति के सुत्रधारों में से एक लक्ष्मण सिंह कहते हैं,"हम कार्तिक की एकादशी को तालाबों,बावडियों और पेडों की पूजा करते हैं.इस दिन जल यात्रा निकाली जाती है.उसमें कई गांव के लोग हिस्सा लेते हैं.इस दिन हम सब यह संकल्प लेते हैं कि हम पेड लगायेंगे और किसी भी पेड को नहीं काटेंगे.तालाबों की मरम्मत करेंगे.और साल भर उस दिन लिये संकल्प के अनुसार काम करते हैं"<br /><br />आज इस गाँव मे हरियाली की कोई कमी नही । खेती भी अच्छी होती है। यहाँ के लोग हर तरह की फसले उगाते है.चाहे वो कोई अनाज हो या मौसमी सब्जियां। लोपाड़िया गाँव की मिट्टी पोषक तत्वों से भरी है। इसके पीछे है इन गाँव वालो की दूरदर्शिता.ये लोग किसी भी तरह की रासायनिक खाद का प्रयोग नही करते। अपने खेतो मे ये जैविक खाद का ही प्रयोग करते है । समूह बनाकर खेती करना इनकी सफलता का एक बड़ा कारण है। लक्ष्मण सिंह कहते हैं," हमलोग यहां मिलजुल कर खेती करते हैं.साथ में किसी तरह की खाद का प्रयोग नहीं करते.शुरु में तो हमें कम फ़सल मिली लेकिन बाद में इन्हीं खेतों ने हमें भरपूर अनाज़ दिया."<br /><br />लापोड़िया गांव के लोग अपनी जागरुकता के चलते आस-पास के गांव ही नहीं कई ज़िलों के लिए भी किसी आदर्श से कम नही। जब बाकी गांवो के लोग सूखे से परेशान रहते है। तब इस गाँव के नज़दीक क्षेत्रों के किसान अपनी उत्पादन क्षमता को और आगे बढाने की कोशिश मे लगे रहते है। जैविक खाद के प्रयोग के साथ ही ये पक्षियों के बीट से बनने वाली खाद का भी प्रयोग करते है । इनका मानना है कि पशु-पक्षी और पेड़ो की मदद से कई दिक्कतो से निजात पाया जा सकता है। इस इलाके के लोगों ने पक्षियों के रहने के लिए एक खुला चीड़ियाघर भी बनाया है और पक्षियों ने भी इसके बदले में करीब हजार बीघे में जैसे पेड़ लगाने का ठेका ले रखा है। लक्ष्मण सिंह हमें उन पेडों को दिखाते हुए कहते हैं. "ये सारे पेड हम नहीं लगा सकते थे.सो हमने पक्षियों को बुलाने के लिये पहले चुगादाना डालना शुरु किया.साथ में इस ४० बिघे की ज़मीन में पेड लगाना शुरु किया.उन पौधों में हमें बहुत मेहनत करनी पडी.पक्षी आए और उन्होनें बीज़ को खाया.उनके बीट से जो पेड लगे हैं उसमें हमें एकदम मेहनत नहीं करनी पडी."<br /><br />लापोड़िया के लोग खेती के साथ-साथ अन्य व्यवसाय भी करते है । पौधे, पशु और पक्षी मतलब प्रकृति के सभी अंगों में सामंजस्य बैठाकर जीना सिखा है लापोड़िया ने। गांव में सहकारी समीति है। जो दूध के व्यवसाय को संचालित करती है।लापोड़िया के हर घर से दूध यहां पहुंचता है। इसके बाद इस दूध को जयपुर भेजा जाता है। अब जब नकद पैसे हाथ में हैं तो लोग अपने बच्चों को शिक्षा-दिक्षा देने का भी प्रयास कर रहे है। हालांकि वाल विवाह अभी भी ज़ारी है लेकिन अब लोगों में जागरुकता आयी है तो वाल विवाह में भी कमी आयी है. ३२ साल की साजो के चार बच्चे हैं.साजो जब १० साल की थी तो ब्याह कर इस गांव में आयी थी. १३ साल की उम्र में पहला बेटा हुआ था.आज एक बेटा और तीन बेटियां.हालांकि साजो<br />ने अपने बेटे की शादी भी १२ साल की उम्र में कर दी लेकिन वह अपनी बेटियों की शादी १८ साल के बाद ही करेगी.उसकी बडी बेटी रानी आज १३ साल की है.रानी ८ वीं क्लास में पढती है.स्कूल जाती है.साजो कहती है, "पहले नहीं मालूम था इसलिये बेटे का ब्याह जल्दी किया.अब तो पहले सभी लडकियों को पढाना है फिर १८ की उम्र के बाद ही शादी करनी है."<br /><br />लापोड़िया गाँव के लोगों ने आज तक जो भी किया है गांववालों के सामूहिक प्रयास से किया है। अपने श्रमदान से किया है। लक्ष्मण सिंह कहते हैं,"जैसे शादियों में आमंत्रण पत्र भेजा जाता है वैसे ही जब कोई काम होता है हम चंदा की रसीद दूसरे गांवों में भेजते हैं.आस पास के हर गांव में ग्राम विकास समीति बनी हुई है.उस समीति के लोग यह तय करते हैं कि उस गांव से चंदा के साथ साथ अच्छी मात्रा में लोग श्रमदान के लिये जुटें.जब दूसरे गांव में कोई काम होता है तो हमारे गांव से भी चंदे के अलावा लोग श्रमदान के लिये जाते हैं.<br /><br />आज लापोड़िया ने स्वावलंबन की एक नई परिभाषा गढ़ी है। पानी की किल्लत से जुझते हुए लोगों को तालाबों, पोखरों ,पौधों और पक्षियों से प्यार करना सिखाया है। सामूहिक प्रयास और नेतृत्व का एक नया कीर्तिमान स्थापित कर साबित किया है कि कुछ भी असंभव नहीं है। कुछ भी नहीं...रेत से पानी निकालना भी नहीं।<br /><br /><strong><strong><strong>क्या है चौका?</strong></strong></strong><br />"ज़मीन के बडे भाग की पहले नापी की जाती है.फिर उस ज़मीन का खाका कागज पर खिंचा जाता है.ज़मीन की ढलान को देखते हुए उसे छोटे छोटे भागों में बांटा जाता है.हर पंक्ति में एक छोटी नाली बनाई जाती है.कई सारी नालियों का रूख एक बडी नाली की ओर होता है.सभी बडी नालियों का रूख तालाब की ओर होता है.चौका के मेड की औसत उंचाई १ फ़ीट तक होती है.जब वारिश होती है तब वारिश का पानी यूंही बह जाने की बजाय नालियों से होता हुआ तालाब तक पहुंचता है. उस पानी का उपयोग सिंचाई के लिये,पशुओं के लिये और पीने के लिये किया जाता है.इस पूरी प्रक्रिया में एक बडा फ़ायदा यह होता है कि यह पानी ज़मीन के अंदर पहुंचता है और ज़मीन के नीचे पानी के स्तर को बढाता है."<br /><br /><strong><strong><strong>क्या है जल यात्रा?</strong></strong></strong><br />"कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को राजस्थान में तालाबों,झीलों और बावडियों की पूजा करने की परम्परा रही है.लापोडिया के लोगों ने इस उत्सव के माध्यम से लोगों को तालाबों ,पेड पौधों,पशुओं और प्रकृति से प्रेम करना सिखाया है.इस दिन यहां के लोग जल यात्रा निकालते हैं.जल यात्रा में १०-३० गांव के लोग हिस्सा लेते हैं.यह यात्रा लापोडिया से शुरु होती है.जत्थे में २० से ५०० तक लोग शामिल हो सकते हैं.यह उस गांव की आबादी पर निर्भर करता है.यह जुलुश की शक्ल में जब दूसरे गांव पहुंचता है तो दूसरे गांव के लोग अपने गांव से बाहर उस जत्थे का स्वागत करने के लिये खडे होते हैं.जत्थे के लोगों को पानी पिलाया जाता है.फिर शुरु होती है चर्चा.गांव की समस्या पर,गांव के हालात पर और उसके समाधान को लेकर.कुछ निर्णय लिए जाते हैं.फिर पहले वाले गांव के लोग वापस लौट आते हैं और दूसरे गांव के लोग अगले गांव की तरफ़ चल पडते हैं.यह सिलसिला तब तक चलता रह्ता है जब तक यह यात्रा सभी गांव (जितने गांव तक इस यात्रा को पहुंचना तय था.)तक नहीं पहुंचती.एक संदेश देती हुई.एक नई शुरुआत के लिये लोगों को प्रेरित करती हुई.समूह में लोगों को काम करने के तौर तरिके सिखाती हुई."Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-79333155554568268012007-11-29T05:00:00.000-08:002007-11-29T06:00:34.397-08:00स्वांतः सुखाय...बहुत दिन पहले की बात है जब हमने भी अपना एक ब्लाग बनाया.सोचा जब भी मैं कहीं कुछ नहीं कह पाउँगा,ब्लाग पर कहूंगा. कहने को बहुत कुछ था मेरे पास लेकिन, मैं ये सोचता था कि पढेगा कौन? साथ में कस्बे वाले रविश कुमार की तरह मुझे भी लिखने से ज्यादा मह्त्वपूर्ण बोलना ही लगता रहा है.हो सकता है इसका एक कारण यह रहा हो कि मैं यह सोचता रहा हूं कि मुझमें लिखने की कला का भरपूर विकास नहीं हो पाया है. लेकिन, जो थोडा बहुत लिख पाता हूं तो क्या मैं उसका उपयोग तुलसी दास की तरह ही स्वांतः सुखाय के लिए लिखते रहने के लिये करुं? उधर मेरी इसी बेरुखी से आज़िज आ चुके दोस्तों का आग्रह भी जारी था.कईयों ने तो झल्ला कर कहा, " लिखो यार...क्या आलसी के पोंछ बने हुए हो."<br /><br />इधर बीच एक और घटना घटी. मोहल्ला,कस्बों और अड्डओं पर घूमते हुए विवेक भाई से टक्कर हुई.लिखने का आग्रह करने लगे. मैनें उन्हे समझाने का प्रयास करते हुए कहा," लिखना मेरे वश का नहीं. और मैं तो देख रहा हूं कि इधर सभी लोग अपना अपना ब्लॉग बना कर बैठे हैं और धडाधड लिखे जा रहे हैं.तो जब सब लोग लिखेंगे ही तो पढेगा कौन? आप हमें पढने वाले की श्रेणी में ही रहने दें". लेकिन, वो नहीं माने. कहने लगे, " पढने वालों की नहीं लिखने वालों की कमी है.सभी लोग सिर्फ़ पढना ही चाहते हैं कोई लिखना नहीं चाहता." मैनें उनसे अपना पिंड छुडाने के लिये कहा ," मुझे तो लिखना आता नहीं. मैं लगातार घुमता रहा हूं और पढता रहा हूं लेकिन मैं तो वैसे सोच भी नहीं पाता जिस तरह से लोग लिखते हैं. शब्दों से खेलना मुझे नहीं आता.मैं कैसे लिखूं? ऐसे ऐसे शब्दों से पाला पडा है जिसे मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ पढते आया हूं.कभी किसी को बोलते नहीं सुना.ज़ाहिर सी बात है वैसे शब्द मैं भी नहीं बोलता .और ना ही सोच पाता हूं. फिर मैं सिर्फ़ लिखने के लिये लिखूं?ये बात भी मेरी समझ से परे है." तभी उन्होनें अपने तरकश का अंतिम तीर छोडा..."ऐसी भाषा तो हमारे गांव में रहने वाले लोग भी नहीं बोलते और ना ही समझते हैं...फिर क्या उनकी कहानियां नहीं कही या लिखी जायेंगी?<br /><br />फिर क्या था...घूम घूम के थोड़ी थकान भी हो रही थी. सो आ बैठा हूं अपने ढाबे में.कुछ कहने को कुछ सुनने को. इस बीच जहां भी मैं घूमता रहा हूं और मैने जो अनुभव किया है उस बारे में भी बातें होंगी.लेकिन थोड़ा आराम कर लूं. अभी अभी लौटा हूं.Anil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-568680478520476303.post-27731746084678406202007-03-25T02:12:00.000-07:002007-03-25T02:15:27.697-07:00दोपहर के अलसाये पलतुम्हारी समँदर -सी गहरी आँखों में,<br />फेंकता पतवार मैं, उनींदी दोपहरी में -<br />उन जलते क्षणों में, मेरा ऐकाकीपन<br />और घना होकर, जल उठता है - डूबते माँझी की तरह -<br />लाल दहकती निशानीयाँ, तुम्हारी खोई आँखों में,<br />जैसे "दीप ~ स्तंभ" के समीप, मँडराता जल !<br /><br />मेरे दूर के सजन, तुम ने अँधेरा ही रखा<br />तुम्हारे हावभावों में उभरा यातनाओं का किनारा ---<br />अलसाई दोपहरी में, मैं, फिर उदास जाल फेंकता हूँ --<br /> उस दरिया में , जो तुम्हारे नैया से नयनों में कैद है !<br />रात के पँछी, पहले उगे तारों को, चोंच मारते हैं -<br />और वे, मेरी आत्मा की ही तरह, और दहक उठते हैँ !<br />रात, अपनी परछाईँ की घोड़ी पर सवार दौड़ती है ,<br />अपनी नीली फुनगी के रेशम - सी लकीरों को छोडती हुई !<br /> - पाबलो नेरुदाAnil Dubeyhttp://www.blogger.com/profile/13940260890852995932noreply@blogger.com9